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अन्नदाता किसान की व्यथा
अन्नदाता किसान कहलाता हूँ
फिर भी उन के आगे हाथ फैलाता हूँ।
देश का भरण पोषण करने को
धरती में अन्न सब्ज़ी उपजाता हूँ।
बेचने जाता हूँ जब फ़सल मंडी को
दलालों के हाथों लूटा जाता हूँ।
नई फ़सल की तैयारी करने को
असहाय होकर क़र्ज़ पर धन जुटाता हूँ।
बैंक यदि सहायता नहीं करता तो
महाजन के हाथों में फिर पड़ जाता हूँ।
अन्नदाता किसान कहलाता हूँ
फिर भी उन के आगे हाथ फैलाता हूँ।
खेती में बीज खाद दवाई लगाने को
बचत जमा पूँजी समस्त लगाता हूँ।
शादी त्यौहार परिवार ख़र्च चलाने को
प्रतिदिन ऋण में गहरा दबता जाता हूँ।
आशा भरी नज़रों से देख सरकारों को
सहायता के लिए सदा गुहार लगाता हूँ।
मेरे तो वोट से मतलब है इन सब को
हर चुनाव में सदियों से देखता आता हूँ।
अन्नदाता किसान कहलाता हूँ
फिर भी उन के आगे हाथ फैलाता हूँ।
अपनी सुख सुविधा की माँग उठाने को
नित्य दर दर की ठोकरें खाता जाता हूँ।
क्रोध आ जाता यदि अन्याय पर मुझको
किसी संगठन का मैं झंडा भी उठाता हूँ।
बढ़ता हूँ आगे माँगें अपनी पूरी करने को
आँसूँ गैस पानी की बोछारों में दब जाता हूँ।
फिर उठ कर खड़ा होता आगे बढ़ने को
लाठी डंडे कभी प्रशासन की गोली खाता हूँ।
नेता कभी आगे नहीं होता दबने मरने को
मैं तथाकथित अन्नदाता ही कुचला जाता हूँ।
स्वार्थी तत्वों के चंगुल से स्वयं बचाने को
असफल हर बार छटफटा कर रह जाता हूँ।
अन्नदाता किसान कहलाता हूँ
फिर भी उन के आगे हाथ फैलाता हूँ।